NCERT HISTORY CLASS 7

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हजार वर्षों के दौरान हुए परिवर्तनों की पड़ताल

CHAPTER – 1

एक मानचित्र अरब भूगोलवेत्ता अल इद्रीसी द्वारा 54 वी ईस्वी में बनाया गया था। इस मानचित्र में उसने दुनिया के एक बड़े हिस्से एशिया उपमहाद्वीप को दर्शाया है। एक दूसरा मानचित्र फ्रांसीसी मानचित्रकार द्वारा 1720 ईस्वी में बनाया गया था। परंतु इन दोनों ही मानचित्रों में निम्नलिखित अंतर देखने को मिलते हैं जो इस प्रकार हैं-

  • दोनों के निर्माण काल में लगभग 600 सालों का अंतर है।
  • दोनों ही मानचित्र एक स्थान के हैं परंतु इनमें राज्य क्षेत्र अलग-अलग है।
  • अल इद्रीसी ने अपने मानचित्र में दक्षिण भारत तथा श्रीलंका को ऊपर की ओर दिखाया है अथार्त उत्तर भारत की ओर परन्तु फ्रांसीसी मानचित्रकार ने इन्हें इनके उचित स्थान पर दिखाया है।
  • इद्रीसी ने अपने मानचित्र में अरबी भाषा का प्रयोग किया है जबकि फ्रांसीसी मानचित्रकार ने यूरोपीय भाषा का प्रयोग किया है।
  • इद्रीसी का मानचित्र उपरोक्त कारणों से अपरिचित दिखाई देता है जबकि फ्रांसीसी मानचित्रकार का मानचित्र परिचित दिखाई देता है।
  • नाविकों द्वारा दूसरे मानचित्र का अधिक प्रयोग किया जाता था।

15 वीं शताब्दी में दिशा सूचक कम्पास का आविष्कार होने से पहले लगभग सभी समुद्री नाविक मानचित्रों के माध्यम से अपना समुद्री अभियान चलाते थे। इसीलिए उन्हें अपनी छोटी-छोटी यात्राओं के लिए लम्बा समय लग जाता था। उपरोक्त मानचित्र भी भारतीय उपमहाद्वीप का रास्ता दिखाने के लिए तैयार किए गए थे

इतनी ही महत्वपूर्ण एक और बात ये है की दूसरे युग तक मानचित्र-अंकन का विज्ञान भी बहुत बदल गया था। इतिहासकार जब बीते युग के दस्तावेजों, नक्शों और लेखों का अध्ययन करते हैं तो उनके लिए उन सूचनाओं के संदर्भ का, उनकी भिन्न-भिन्न एतिहासिक पृष्ठभूमियों का ध्यान रखना ज़रूरी होता है।

नई और पुरानी शब्दावली

 समय के परिवर्तन चक्कर के साथ सब कुछ किसी न किसी रूप में जरूर बदलता है। इतिहास का अतीत जानने वाले अभिलेख विभिन्न भाषाओं में मिलते हैं। अतीत के अभिलेखों में प्र्युक्त भाषा आज देखने को नहीं मिलती है। इस प्रकार का परिवर्तन सिर्फ व्याकरण और शब्द भंडार तक ही सीमित नहीं रहा अपितु इसमें समय के साथ शब्दों के अर्थ भी बदले हैं। मध्ययुग की फारसी और उर्दू भाषा आधुनिक युग की फारसी और उर्दू भाषा से बिल्कुल अलग है, यह इसका एक अच्छा उदाहरण है।

इस भाषा परिवर्तन और शब्द परिवर्तन को समझने हेतु हमारे लिए हिंदुस्तान शब्द सबसे उपयुक्त है। कभी इसे इंडस, भरत, इंडो, इंडिया कहा जाता था तथा कहा जाता है। इल शब्द परिवर्तन को समझने के लिए हिंदुस्तान से जुड़े विभिन्न चरणों का समझना होगा जो इस प्रकार है –

  • 13वीं सदी के फारसी इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने उपरोक्त शब्द का प्रयोग पंजाब, हरियाणा और गंगा यमुना के बीच में स्थित क्षेत्र के लिए किया था।
  • उपरोक्त इतिहासकार ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग उन क्षेत्रों के लिए किया था, जो दिल्ली सुल्तान के अधिकार क्षेत्र में आते थे।
  • जैसे-जैसे दिल्ली सल्तनत का अधिकार क्षेत्र बढ़ता गया वैसे-वैसे ‘हिंदुस्तान’ शब्द का प्रभाव क्षेत्र भी मिनहाज-ए-सिराज की नजरों में बढ़ता गया।
  • यहाँ यह भी ध्यान दें कि दक्षिण भारत के क्षेत्र को कभी भी ‘हिंदुस्तान’ शब्द के प्रभाव क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया।
  • 16 वीं शताब्दी में बाबर ने उपरोक्त शब्द का प्रयोग भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक स्थिति के लिए किया था।
  • आज के समय समान ‘हिंदुस्तान’ कभी भी एक राष्ट्रीय विचारधारा वाला शब्द नहीं था । यह मध्य काल में सिर्फ एक भौगोलिक स्थिति देखने वाला शब्द था।
  • चौदहवीं सदी के अमीर खुसरो द्वारा हिंदुस्तान के लिए हिंद शब्द का प्रयोग किया गया था।

भाषा और शब्द परिवर्तन को समझने के लिए विदेशी शब्द एक अन्य उदाहरण है। आज हम देशी और विदेशी शब्द का प्रयोग राष्ट्रीयता के लिए करते हैं परन्तु अतीत में ऐसा नहीं होता था। उस समय इस शब्द का प्रयोग साधारणतः अनजाने व्यक्ति के लिए होता था। इस प्रकार के अनजाने व्यक्ति को उस समय परदेशी (हिंदी में) अजनबी (फारसी में) कहा जाता था। अतीत में अपने से अलग सामाजिक या सांस्कृतिक व्यक्ति को विदेशी कहा जाता था। इस शब्द का प्रयोग अन्य ग्रामवासी के लिए, शहरी व्यक्ति के लिए, और वनवासी के लिए होता था। किंतु एक ही गांव में रहने वाले दो किसान अलग-अलग धार्मिक या जाती परंपराओं से जुड़े होने पर भी एक दूसरे के लिए विदेशी नहीं होते थे।

इतिहासकार और उनके स्रोत

इतिहास की प्रकृति को समझने के लिए हमें उस समय के विभिन्न प्रकार के एतिहासिक स्रोतों की आवश्यकता होती है। स्रोत ही किसी इतिहास को तर्कसंगत रूप देते हैं, इसके बिना कोई भी इतिहास मात्र कहानियों का संग्रह बनकर रह जाता है।

इतिहास के स्रोतों में लिखित सामग्री का अधिक प्रयोग होने का प्रमुख कारण कागज का आविष्कार था जो समय के साथ आसानी से उपलब्ध होने लगा था। तत्कालीन समय में इन कागजों का विभिन्न प्रकार से प्रयोग होता था जो इस प्रकार है –

  • धर्मग्रंथ, शासकों की आत्मकथा, वृत्तांत, संतो के धर्म उपदेश, न्याय की प्रक्रिया, प्रार्थना पत्र, व्यापार का हिसाब आदि के लिए कागज पर लेखन किया जाने लगा था
  • अतीत की पांडुलिपियां जो सामान्यत: वृक्ष के पत्तों या उनकी छाल से बनी होती थी, उनकी नकल को कागज पर उकेरा जाने लगा था।
  • पांडुलिपि जैसे वास्तविक स्रोत को एकत्रित करने का कार्य उस समय के व्यापारी, अमीर व्यक्ति, साहसी नाविक, दार्शनिक, शासक, मठ, मंदिर इत्यादि करते थे।
  • उपरोक्त पांडुलिपियों को सुरक्षित रखने के लिए पुस्तकालय और अभिलेखागारों का प्रयोग किया जाता था।
  • पांडुलिपियां या कागज पर उकेरे गए ग्रंथों का प्रयोग करना तथा उनकी सुरक्षा करना कठिन कार्य था।

प्राचीन काल के इतिहास का लिखित स्रोत हमें मुख्यतः हैं ताम्रपत्रों तथा शिला लेखों के माध्यम से प्राप्त होता है जिसे हम अभिलेख कहते हैं। अभिलेख शब्द से हमारा अभिप्राय कठोर सतह पर लिखी गई सामग्री से होता है। कागज का आविष्कार न होने के कारण प्राचीन काल में इसी ऐतिहासिक स्रोत का अधिक प्रयोग होता था।

उन दिनों छापेखाने तो थे नहीं, इसलिए लिपिक या नकलनवीस हाथ से ही पांडुलिपियों की प्रतिकृति बनाते थे। पांडुलिपियां हाथ से पेड़ के पत्तों या पेड़ की छाल पर लिखी जाती थी । लिखित सामग्री के रूप में यह सबसे प्राचीन स्रोत मानी जाती है परन्तु वर्तमान में यहाँ तो अधिकतर पांडुलिपियां समाप्त हो चुकी है या उनका वास्तविक रूप उपलब्ध नहीं है।

नए सामाजिक और राजनीतिक समूह

700 ईस्वी से लेकर 1750 ईसवी के काल को हम मध्यकाल की संख्या देते हैं। इस काल में प्राचीन काल की सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक गतिविधियों में विभिन्न परिवर्तन होने लगे थे । परिवर्तन के कारण इस काल का इतिहास अध्ययन की दृष्टि से चुनौती भरा है।

  • उपरोक्त वर्णित काल में सिंचाई के क्षेत्र में रहट का प्रयोग, कताई में चरखे का प्रयोग और युद्ध में बारूद अर्थात विस्फोटक सामग्री का प्रयोग जैसे विभिन्न परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
  • विदेशियों के आगमन के साथ विभिन्न प्रकार के खाद्य फसलों में भी परिवर्तन इस उप-महाद्वीप में देखने को मिला। नमी की फसल जैसे आलू, मक्का, चाय, अफीम, कॉफी इत्यादि का उत्पादन इस महाद्वीप में होने लगा था।
  • युग परिवर्तन के साथ ही व्यापार और यातायात के साधनों में भी वृद्धि हुई।
  • समुद्री मार्गों की खोज के कारण आवागमन व व्यापार की प्रक्रिया तेज हो गई।
  • नए अवसरों की तलाश में लोग समूहों में दूर दूर तक व्यापार के लिए जाने लगे थे। इस प्रयास में भारतीय उपमहाद्वीप विदेशी व्यापारियों, दार्शिनिकों, शिक्षकों और धर्म प्रचारकों के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उभरा था।

इस काल में जिन समुदाय का महत्त्व बढ़ा उनमें से एक समुदाय था राजपूत, जिसका नाम राजपुत्र अथार्त राजा का पुत्र से निकला है। आठवीं से चौदहवीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया योद्धा वर्ग उभर कर आया जिसे सामान्यतः राजपूत कहा जाता था।

  • ऋग्वेद नामक प्राचीन ग्रंथ में भी इस वर्ग को क्षत्रिय वर्ग में शामिल किया गया था और इसका कार्य युद्ध संबंधी कार्यों को करना होता था।
  • इस वर्ग के साथ मराठा, सिक्ख, जाट, अहोम, मध्यम वर्ग और कयस्थ आदि समूहों ने भी अपनी राजनीतिक पहचान को मजबूत किया ।
  • बढ़ती जनसंख्या और राज्य की आवश्यकता को पूरा करने के लिए लगातार वन भूमि को कृषि भूमि में बदला जा रहा था।
  • मैदानी क्षेत्रों में यह परिवर्तन अधिक तेजी से हुआ क्योंकि इस प्रकार के क्षेत्र की भूमि कृषि के लिए अधिक उपयोगी थी। इस प्रक्रिया को ‘पर्यावास’ का नाम दिया गया क्योंकि वन निवासी अब अपने लिए अलग निवास स्थलों की खोज करने लगे। इस प्रक्रिया ने वन निवासियों को कृषक का रूप प्रदान कर दिया।
  • कृषकों के ये नए समूह क्षेत्रीय बाजार, मुखियाओं, पुजारियों, मठों और मंदिरों से प्रभावित होने लगे। वे बड़े और जटिल समाजों के अंग बन गए। उन्हें कर चुकाने पड़ते थे और स्थानीय मालिक वर्ग की बेगारी करनी पड़ती थी। परिणामस्वरूप किसानों के बीच आर्थिक और सामाजिक अंतर उभरने लगे।
  • कुछ के पास ज्यादा उपजाऊ जमीन होती थी, कुछ लोग मवेशी भी पालते थे और कुछ लोग खेती से खाली समय में दस्तकारी आदि का कुछ काम कर लेते थे। जैसे जैसे समाज में अंतर बढ़ने लगे, लोग जातियों और उपजातियों में बांटे जाने लगे और उनकी पृष्ठभूमि और व्यवसाय के आधार पर उन्हें समाज में ऊंचा या नीचा दर्जा दिया जाने लगा।
  • जन्म व्यवस्था पर कर्म व्यवस्था का प्रभाव बढ़ने लगा। समाज में व्यक्ति का स्थान उसके कार्य की पृष्ठभूमि और प्रकृति के आधार पर होने लगा। कर्म व्यवस्था पर आधारित सामाजिक दर्जा अस्थायी होता था। एक जाति के विभिन्न लोगों के पास अलग अलग सामाजिक  दर्जा हो सकता था। कार्य की प्रकृति के आधार पर सामाजिक ओहदा या दर्जा बदलता रहता था। सामाजिक ओहदा के निर्धारण में सत्ता प्रभाव और संसाधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
  • इस युग में जाति व्यवस्था जटिल रूप धारण कर रही थी। अलग अलग जातियां अपने सदस्यों के व्यवहार को अनुशासित करने के लिये स्वयं अपने कानून बना रही थी। इन कानूनों को बनाने का कार्य बड़े बुजुर्गों की सभा करती थी, जिसे ‘जाति पंचायत’ कहा जाता था।
  • इसके अतिरिक्त अलग-अलग गांवों में भी अलग-अलग जाति कानून होते थे, जिनका पालन गांव के लोगों को करना होता था।
  • राष्ट्र व राज्यों का उदय न होने के कारण इन गांवों पर गांव का प्रमुख व्यक्ति ‘मुखिया’ के नाम से शासन करता था ।

क्षेत्र और साम्राज्य

  • मध्यकालीन युग में भारतीय उपमहाद्वीप में बड़े बड़े साम्राज्यों का गठन हुआ। साम्राज्यों के सम्राट अपने साम्राज्यों तथा अपनी विजय अभियानों का वर्णन अपने राजकवियों से अतिशयोक्ति रूप में करवातें थे। इसलिए अधिकतर इतिहासकार इन वर्णनों में सच्चाई की मात्रा कम ही मानते हैं। इसी प्रकार की एक अतिशयोक्ति प्रशस्ति में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन बलबन (1266 – 1287) के साम्राज्य का विस्तार पूर्व में बंगाल (गौड़) तथा पश्चिम में अफगानिस्तान के गजनी, दक्षिण में संपूर्ण द्रविड़ क्षेत्र तथा गौड़, आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात तक बताया गया है। परंतु लगभग सभी इतिहासकार इस प्रकार की प्रशस्ति को पूर्णतः सत्य नहीं मानते हैं, क्योंकि उनको अंदेशा है कि इस प्रकार के वर्णन कवियों ने अपने सम्राट के प्रति चापलूसी का ही प्रतीक है। इस प्रकार के कवियों को इतिहासकारों ने लोक मुहावरे से समझाया है। वह है –  “जिसकी खा बाकली उसके गा गीत”।

प्रशस्ति कवियों द्वारा अपने राजा या दानदाता की प्रशंसा में लिखा गया है एक प्रशंसा संकलन होता था जिसमें वह अपने आश्रयदाता की तुलना देवों से करके उसको प्रजा में पूजनीय बनाने का प्रयास करता था। इसलिए आधुनिक इतिहासकार इस प्रकार के वर्णनों के अधिक महत्त्व नहीं देते हैं।

  • 700 ईस्वी से भारतीय उपमहाद्वीप में युग परिवर्तन के लक्षण दिखाई देने लगे थे। इस काल में छोटे छोटे राष्ट्रीय राज्यों का उदय भी शुरू हो गया था। छोटे छोटे राष्ट्रीय राज्यों को अपनी भाषा और सांस्कृतिक विशेषताएं स्पष्ट रूप धारण करने लगी थी। इस प्रकार के छोटे राज्य विशेष शासक राजवंश के नाम के साथ जुड़े हुए थे । इन राज्यों द्वारा अपनी सीमा विस्तार के प्रयास के कारण प्राय: टकराव भी होता रहता था। समय के साथ ये छोटे राज्य चोल, खलजी, तुग़लग और मुगल जैसे विशाल साम्राज्य में भी स्थापित होने लगे थे। एक साम्राज्य दूसरे साम्राज्य के पतन पर खड़ा होता था इसलिए इनका स्थायित्व काल अधिक लम्बा नहीं होता था।
  • 1707 ईस्वी में औरंगजेब की मृत्यु के बाद बाबर द्वारा 1526 में स्थापित मुगल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया था। इस पतनशील प्रक्रिया के फलस्वरूप इस साम्राज्य के अधीन अलग अलग क्षेत्र अपने आप को स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित करने लगे थे।
  • स्वतंत्र होने वाले राज्यों में नई राजनैतिक शक्ति का उदय हुआ। जिससे पहले से चली आ रही परंपराओं और नीतियों को कुछ हद तक बदलने का प्रयास किया। इन अलग-अलग राज्यों की कुछ परंपराएं अपने मुगल शासन की विरासत के कारण एक समान रही परंतु कुछ अपने नए शासक व उसकी परंपराओं के अनुसार बदलने लगी। इन सभी परिवर्तनों के कारण भारतीय उपमहाद्वीप विभिन्न विरासतों वाला क्षेत्र बन कर उभरा।
  • प्रशासन अर्थव्यवस्था के प्रबंधन, उच्च संस्कृति तथा भाषा के क्षेत्र में हमें यह भी देखने को प्रत्यक्ष मिलता है। सन 700 से लेकर 1750 तक एक ही समावेश में अलग अलग राज्यों, परंपराओं, शक्तियों और धर्मों का उदय हुआ।

 पुराने और नए धर्म

  • स काल से जैसे-जैसे सामूहिक समुदाय का सामाजिक जीवन बदलता गया वैसे वैसे धर्म के क्षेत्र में भी परिवर्तन होता गया। गरीब और शोषित वर्ग हिंदू धर्म से दूर होने लगा। सामूहिक आस्था, वैयक्तिक आस्था में बदलने लगी। सामूहिक व वैयक्तिक आस्था के प्रतीक के रूप मंदिर, मठों का निर्माण होने लगा। मंदिर दैविक संस्थान के रूप में विकसित होने लगे। धर्म सामाजिक स्तर की अपेक्षा आर्थिक स्तर से निर्धारित होने लगा। आज हम जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, उसमें भी इसी युग में महत्वपूर्ण बदलाव आए। इन परिवर्तनों में से कुछ थे नए देवी-देवताओं की पूजा, राजाओं द्वारा मंदिरों का निर्माण और समाज में पुरोहितों के रूप में ब्राह्मणों का बढ़ता महत्त्व तथा बढ़ती सत्ता, आदि।
  • पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग संस्कृत ग्रंथों के संरक्षण के रूप में स्थापित होने लगे। इन ग्रंथों का ज्ञान होने के कारण उनको समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त था। ये लोग इन धर्म ग्रंथों की व्याख्या अपनी इच्छानुसार करते थे। शासक वर्ग भी अपनी सत्ता को दैवीय रूप प्रदान करने के लिए इनका सहयोग करने लगा था। शासक वर्ग के सहयोग के कारण ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग को समाज में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त था।
  • मध्यकाल में होने वाला है एक अन्य परिवर्तन भगवान को प्राप्त करने के साधन से संबंधित था। प्राचीन काल में भगवान तक पहुंचने के लिए ब्राह्मणों तथा बड़े यज्ञों पर निर्भर रहना पड़ता था। परंतु मध्यकाल में पुजारियों के विशद कर्मकांड के बिना ही भक्त स्वयं भगवान को प्राप्त कर सकते थे। अर्थात इस युग में कल्पना के आधार पर भक्ति का स्वरूप नष्ट होने लगा तथा इतने भौतिक स्वरूप प्राप्त कर लिया।
  • यही वह युग था जिसमें इस उपमहाद्वीप में नए-नए धर्मों का भी आगमन हुआ। कुरान शरीफ का संदेश भारत में पहले पहल सातवीं सदी में व्यापारियों और आप्रवासियों के जरिए पहुंचा। मुसलमान कुरान शरीफ कोअपना धर्म ग्रन्थ मानते हैं, केवल एक ईश्वर-अल्लाह की सत्ता को स्वीकार करते हैं जिसका प्रेम, करुणा और सौंदर्य अपने में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को गले लगाता है चाहे उस व्यक्ति के सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी रही हो।
  • बड़े-बड़े साम्राज्यों के शासक भी धर्म का सहारा लेने के लिये धर्म के ठेकेदारों को अपना सहयोग करने लगे। इस्लामी शासकों को दैव्य स्वरूप देने के लिये इस्लाम साम्राज्य के शासक इस्लाम धर्म को संरक्षण देने लगे। इसी प्रकार का कार्य हिंदू शासकों द्वारा किया जाने लगा था। ये धर्म के ठेकेदार अपने शासकों की इच्छानुसार धर्म की व्याख्या करने लगे।
  • इस्लाम धर्म में भी दो समुदाय थे एक वो जो (शिया) पैगंबर साहब के दामाद अली को मुसलमानों का विधिसम्मत नेता मानते थे, परंतु दूसरी ओर वे (सुन्नी) जो खलीफाओं के प्रभुत्व को स्वीकार करते थे। इस्लाम धर्म का नेतृत्व करने वाले वर्ग को खलीफा के नाम से जाना जाता था।
  • इसी प्रकार के भेद हमें हिंदू समाज में भी देखने को मिलते हैं। भारत में हनफी और शफी ऐसे न्यायसिद्धांत थे जिनका इस्लामी धर्म में प्रयोग होता था।

 समय और इतिहास के कालखंडों पर विचार

  • इतिहासकार की नजर में समय को घंटों, कैलेंडरों और दिनों में विभाजन नहीं किया जाता है। इसका कारण यह था कि वे इस विषय का अध्ययन एक सामूहिक कालखंड में करना चाहते थे।
  • विभिन्न कालखंडों में ही सामाजिक और आर्थिक संगठन के व्यवहार को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। इसलिए इतिहास विषय को प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक और समकालीन कालों में विभाजित किया जाता है।

उपरोक्त इतिहास विभाजन की तरह 19वीं शताब्दी के अंग्रेज इतिहासकारों ने भी भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश शासन के युग में विभाजित किया है। अंग्रेज इतिहासकार शासक के धर्म को ही ऐतिहासिक युग का आधार मानते थे। इसलिए उन्होंने हिंदू शासकों के अधीन भारत को ‘हिंदूकाल’ तथा मुस्लिम शासकों के अधीन भारत को ‘मुस्लिमभारत’ तथा ब्रिटिश शासन को ‘ब्रिटिश भारत’ का नाम दिया। उपरोक्त इतिहासकारों के अनुसार अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति की अपेक्षा धर्म महत्वपूर्ण बदलाव वाला कारण होता है।

  • उपरोक्त काल विभाजन औपनिवेशिक शासन का ही प्रतीक था। इसलिए निष्पक्ष इतिहासकारों ने इस प्रकार के काल विभाजन को तर्कसंगत नहीं माना है। इस प्रकार के इतिहासकारों ने धर्म पर आधारित इतिहास विभाजन को नकार दिया है तथा इतिहास काल के विभाजन के लिए आर्थिक और सामाजिक कारकों को ही महत्वपूर्ण माना हैं।
  • इस प्रकार के कारकों में शिकारी-संग्राहक, प्रारंभिक दौर के कृषिकर्मी, शहरों और गांवों के निवासी और प्रारंभिक दौर के राज्य और साम्राज्यों को शामिल किया जाता है।

 भारत के इतिहास के ये हजार साल  अनेक बदलावों के साक्षी रहे हैं। आखिर, 16वीं और 18वीं शताब्दियां  8वीं या 11वीं शताब्दियों से काफी भिन्न थी। इसीलिए इस सारे काल को एक ऐतिहासिक इकाई के रूप में देखना समस्याओं से खाली नहीं है। फिर, मध्यकाल की तुलना प्रायः आधुनिक काल से की जाती है। आधुनिकता के साथ भौतिक उन्नति और बौद्धिक प्रगति का भाव जुड़ा हुआ है। इससे आशय निकलता है की मध्यकाल रूढि़वादी था और उस दौरान कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा नहीं था ।

 मध्यकालीन भारतीय उपमहाद्वीप अपनी धन संपत्ति के कारण सोने की चिड़िया कहलाता था। इसी कारण से अनेक विदेशी कंपनियां भारतीय उपमहाद्वीप से व्यापार करने के लिए इस क्षेत्र में आने लगी। शुरू में विदेशी व्यापार से इस महाद्वीप के धन सम्पन्नता में काफी वृद्धि हुई।

पारिभाषिक शब्दावली

  1. भूगोलवेत्ता – किसी भी क्षेत्र भौगोलिक परिस्थितियों जैसे जलवायु वातावरण मौसम इत्यादि का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ व्यक्ति को भूगोलवेत्ता कहा जाता है।
  2. उपमहाद्वीप – भारत, पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश इत्यादि के सम्मिलित क्षेत्र को उपमहाद्वीप कहा जाता है।
  3. मानचित्रकार –  जो व्यक्ति किसी स्थान या परिस्थितियों को मान चित्र या नक्शे पर उकेरने का कार्य करता है ।
  4. कालावधि – किसी विशेष समय घटने वाली घटनाओं के समूह को कालावधि कहा जाता है।
  5. नाविक – समुद्र की यात्रा करने वाले व्यक्ति जो स्वयं अपने प्रयासो से अपना मार्ग तैयार करते हैं।
  6. अभिलेख – अतीत के वे मुद्रित सामग्री जो हमें अतीत का ज्ञान करवाती है। प्रायः यह कार्य कठोर सतह वाले पदार्थों पर किया जाता था।
  7. हिंदुस्तान – आज हम इसे आधुनिक राष्ट्र राज्य भारत के लिए प्रयोग करते हैं।
  8. सुल्तान – सल्तनत काल में यह शब्द राजा के लिए प्रयोग होता था।
  9. सल्तनत – 13वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी के काल में भारत में स्थापित शासन के लिए इसका प्रयोग होता था।
  10. हिन्द – 14 वीं शताब्दी में इस शब्द का प्रयोग अमीर खुसरो द्वारा भारत के लिए किया गया था ।
  11. विदेशी – हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों से अलग व्यक्ति को विदेशी कहा जाता है।
  12. स्रोत – वे तथ्य जो अतीत का ज्ञान करवातें हैं तथा उस ज्ञान को प्रामाणिकता प्रदान करते हैं।
  13. स्थापत्य – भवन बनाने से संबंधित कला को स्थापत्य का नाम दिया जाता है
  14. शिलालेख – पत्थरों पर लिखी गई मुद्रित सामग्री जो अतीत से जुड़ी हुई हो शिलालेख कहा जाता है।
  15. प्रामाणिक लिखित सामग्री – अतीत की वो मुद्रित सामग्री जो तथ्य व स्त्रोतों के आधार पर टिकीं हो।
  16. इतिहासकार – इतिहास का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने वाले व्यक्ति को इतिहासकार कहा जाता है ।
  17. पांडुलिपियां – अतीत की हाथों से लिखी वो सामग्री जो ताड़ पत्रों या छाल पर लिखी हो ।
  18. अभिलेखागार – ऐसा स्थान जहाँ पर दस्तावेजों और पांडुलिपियों को संग्रहित किया जाता है। आज सभी राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के अभिलेखागार होते हैं जहाँ वे अपने तमाम पुराने सरकारी अभिलेखों को सुरक्षित रखते हैं।
  19. गृहकार्य – घर पर किए जाने वाले कार्य को इस नाम से पुकारा जाता है।
  20. लिपिक या नकलनवीस – हाथों से लिखित कला के जानने वाले को इस नाम से जाना जाता है। पहले से लिखी सामग्री (पांडुलिपि ) की नकल उतारने वाले को नकलनवीस कहा जाता था ।
  21. पांडुलिपियों की प्रतिकृति – मौलिक रचना जैसे पांडुलिपि की बिल्कुल वैसी ही नकल उतारना पांडुलिपियों की प्रतिकृति कहलाती है ।
  22. नस्तलिक लिपि – इस प्रकार की लिपि बाईं ओर से वर्ण जोड़कर धाराप्रवाह के रूप में लिखी जाती है।
  23. शिक्स्त लिपि – इस प्रकार की लिपी दांई ओर से वर्ण जोड़कर धाराप्रवाह के रूप में लिखी जाती है ।
  24. संशोधन – किसी भी चीज़, वस्तु, लेख इत्यादि कि प्रकृति में परिवर्तन करना संशोधन कहलाता है ।
  25. रहट – अतीत में कृत्रिम सिंचांंई की एक प्रणाली जिसमें पशुओं के माध्यम से पानी निकाला जाता ।
  26. पर्यावास – किसी भी क्षेत्र के पर्यावरण और वहाँ के रहने वाले के सामाजिक और आर्थिक जीवनशैली को कहा जाता है ।

हमने ncert history class 7 Ch. 1 के बारे में संपूर्ण जानकारी प्रदान की है, उम्मीद करते हैं कि आपको अवश्य ही पसंद आया होगा।

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