ncert class 7 history chapter 9

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CHAPTER – 9

विजयनगर साम्राज्य

आओ जानें

  • राजनीतिक इतिहास – संगम वंश, सलुव वंश, तुलुव वंश एवं अरविदु वंश।
  • कृष्णदेवराय – उपलब्धियां एवं योगदान।
  • विजयनगर का प्रशासन।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में विजयनगर साम्राज्य का उद्भव व विकास एक महान क्रान्तिकारी घटना मानी जाती है। दक्षिण भारत में विजयनगर के शासकों ने ही तुगलक वंश के विरुद्ध विजय पताका फहराई। सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में विजयनगर साम्राज्य का वैभव अपने चरमोत्कर्ष पर था। लगभग तीन शताब्दियों तक इस साम्राज्य ने भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखा। यहां के शासकों ने शानदार नगरों की स्थापना, भव्य भवनों का निर्माण और कला, हस्तशिल्प, साहित्य एवं धर्म को संरक्षण दिया। उन्होनें उच्चकोटि की प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित की। समस्त पुरातात्विक सामग्री (भवन, अभिलेख व सिक्कों) के अध्ययन एवं उपलब्ध साहित्य के आधार पर हम इस साम्राज्य के इतिहास से परिचित हो सकते हैं।

विजयनगर का शाब्दिक अर्थ ‘विजय का नगर’ है। तुंगभद्रा नदी के किनारे संगम बंधुओं ने अपनी विजय स्मृति में इसे बसाया था। उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर दक्षिण में सुदूर प्रायद्वीप तक विजय नगर साम्राज्य का फैलाव था। आधुनिक समय में विजयनगर के अवशेष हमें हंपी नामक स्थान से प्राप्त होते हैं। स्थानीय मातृ देवी ‘पम्पा देवी’ के नाम से इस स्थान का नामकरण हम्पी हुआ।

राजनीतिक इतिहास

तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर विजयनगर राज्य की स्थापना का श्रेय ‘हरिहर’ और ‘बुक्का’ नामक दो भाइयों को जाता है। प्रारंभ में वे होयसल शासक प्रताप रुद्र द्वितीय की सेवा में थे। 1323 ई. में जब काकतीय राज्य पर दिल्ली के सुल्तानों का अधिकार हो गया तब वे कपिली राज्य में मंत्री पद पर आसीन हो गए। मोहम्मद तुगलक ने जब कपिली को जीत लिया तब इन दोनों भाइयों को भी कैद में डालकर मुस्लिम धर्म स्वीकार करने पर विवश किया गया। कपिली में विद्रोह होने पर तुगलक ने इन्हीं दोनों को वहां विद्रोह दबाने भेजा। इन्होंने कपिली पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। कापच नायक और वीर बल्लाल तृतीय की दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध सफलता से प्रेरित होकर इन्होंने भी स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का निश्चय किया। संत विद्यारण्य के गुरु और श्रृंगेरी मठ के मठाधीश विद्यातीर्थ द्वारा उन्हें पुनः हिंदू धर्म में प्रवेश करवाया गया। उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की।

संगम वंश

संस्थापक – हरिहर व बुक्का

शासनकाल – 1336 ई.-1485 ई.

  1. हरिहर प्रथमः 1336 ई.-1356 ई.

हरिहर प्रथम इस राज्य का प्रथम शासक था। उसने अनेगुंडी को अपनी राजधानी बनाया। बाद में उसने अपनी राजधानी विजयनगर में स्थापित की। विजयनगर के महान अवशेष आज के हम्पी में विद्यमान है। हरिहर ने अपनी योग्यता से बादामी. उदयगिरि और गुट्टी के दुर्गों को सुदृढ़ किया। हरिहर ने 1346 ई. में होयसल राज्य और मदुरा के शासकों को परास्त किया। इस प्रकार हरिहर ने अपने भाई बुक्का प्रथम की सहायता से एक विस्तृत एवं सुदृढ़ शासन की स्थापना की।

2. बुक्का प्रथम: 1356 ई.-1377 ई.

विजयनगर साम्राज्य व बहमनी सल्तनत में तीन मुख्य क्षेत्रों तुंगभद्रा दोआब, कावेरी-गोदावरी डेल्टा व कोंकण क्षेत्र को लेकर परस्पर टकराव था। इन क्षेत्रों में उपजाऊ भूमि तथा विदेशी व्यापार के लिए अनेक बंदरगाह थे। दोनों ही राज्य दक्षिण भारत में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे। बुक्का के समय में कृष्णा नदी को बहमनी और विजयनगर राज्य की सीमा मान लिया गया। बुक्का ने अपने पुत्र कम्पन की सहायता से मदुरै को विजय किया। कम्पन की पत्नी गंगादेवी की पुस्तक ‘मदुराविजयम्’ में इस विजय का विस्तार से वर्णन दिया गया है।

उसने अपने राज्य को सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम तक विस्तृत कर दिया। बुक्का ने बिदेशी व्यापार के लिए 1374 ई. में अपना एक दूत मण्डल चीन भेजा। उसने ‘वेदमार्ग-प्रतिष्ठापक’ की उपाधि ग्रहण की। बुक्का प्रथम के दरबार में सायणाचार्य नामक वेदों का महान भाष्यकार था। उसने वेद और अन्य धार्मिक ग्रंथों की नवीन टीकाएं लिखवाई तथा तेलुगु साहित्य को प्रोत्साहित किया। बौद्ध, जैन, ईसाई तथा मुस्लिम सभी धमों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की जो अंत तक विजयनगर राज्य की नीति बनी रही।

क्या आप जानते हैं?

दोआब: दोआब उर्दू भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है दो बड़ी नदियों के मध्य की भूमि जो कृषि के लिए काफी उपजाऊ होती है। आब का अर्थ पानी है। यहां पर जनसंख्या घनत्व काफी सघन मात्र में पाया जाता है। विश्व की लगभग सभी प्राचीनतम सभ्यताओं का उदय ऐसे दोआव के मध्य हुआ था।

 

3. हरिहर द्वितीय : 1377 ई.-1404 ई.

हरिहर द्वितीय ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसने कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची आदि प्रदेशों को जीता। उसकी सबसे महान सफलता बहमनी राज्य से पश्चिमी क्षेत्र कोंकण व गोवा छीनना था। हरिहर द्वितीय शिव के विरुपाक्ष रूप का उपासक था।

4. देवराय प्रथम: 1406 ई.-1422 ई.

हरिहर द्वितीय की मृत्यु के बाद क्रमशः विरुपाक्ष प्रथम और बुक्का द्वितीय उत्तराधिकारी बने। 1406 ई. में देवराय प्रथम शासक बना। देवराय प्रथम के समय में तुंगभुद्रा-दोआब को लेकर पुनः बहमनी राज्य से युद्ध छिड़ गया। देवराय प्रथम ने वारंगल के शासकों से गठजोड़ कर लिया। वारंगल द्वारा बहमनी सल्तनत का साथ छोड़ने से दक्कन में शक्ति-संतुलन बदल गया। देवराय फिरोजशाह बहमनी को करारी मात देने में सफल रहा। देवराय ने जल की कमी को दूर करने के उद्देश्य से तुंगभद्रा नदी पर एक बांध बनवाया। उसने सिंचाई के लिए हरिहर नदी पर भी एक बांध बनवाया। उसके दरबार में ‘हरविलास’ ग्रंथ के रचियता प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनाथ थे। इसके शासन काल में इटली निवासी यात्री निकोलोकोण्टी ने 1420 ई. में विजयनगर की यात्रा की। निकोलो द कोण्टी राज्य में मनाए जाने वाले त्यौहार दीपावली व नवरात्र का उल्लेख अपने यात्रा वृतांत में करता है। नगर के विषय में वह लिखता है, “नगर की परिधि 96 कि.मी. थी और उसमें 90000 सैनिकों की शक्तिशाली सेना भी निवास करती थी।“

5. देवराय द्वितीय: 1422 ई.-1446 ई.

देवराय द्वितीय विजयनगर का महानतम शासक था। विजयनगर इतिहास में उसे ‘इम्माडि देवराय’ के नाम से जाना जाता है। उसने 2000 तुर्की धनुर्धरों को अपनी सेना में भर्ती किया। उसके और बहमनी राज्य के बीच एक के बाद एक तीन लड़ाइयां हुईं परंतु कोई परिणाम नहीं निकला इसलिए दोनों पक्षों को मौजूदा सीमाओं पर सहमत होना पड़ा। उसने अपने शासन काल में अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार श्रीलंका द्वीप तक किया। उसके समय में फारसी राजदूत अबदुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की। उसके अनुसार “विजयनगर संसार के सबसे शानदार नगरों में से एक था।“ उसने राज्य के वैभव और ऐश्वर्य की भी प्रशंसा की।

 

विजयनगर साम्राज्य के प्रमुख राजवंश

राजवंश संस्थापक  शासनकाल
संगम वंश हरिहर व बुक्का 1336 ई. – 1485 ई.
सलुव वंश नरसिम्हा सलुव 1485 ई – 1505 ई.
तुलुव वंश वीर नरसिंहा 1505 ई. – 1570 ई.
अरविदु वंश तिरुमल्ल 1570 ई. – 1650 ई.

सलुव वंश

संस्थापक – नरसिम्हा सलुव

शासनकाल – 1485 ई – 1505 ई.

देवराय द्वितीय के बाद संगम वंश के कुछ कमजोर शासकों के बीच गृह युद्ध हुए. जिसमें राज्य के सामंतों को स्वतंत्र होने का अवसर मिल गया। ऐसी स्थिति में राज्य के मंत्री नरसिम्हा सलुव ने सत्ता हथिया कर सलुव वंश की नींव रखी। इसे विजय नगर इतिहास में प्रथम बलापहार कहा जाता है।

1490 ई. में नरसिम्हा सलुव की मृत्यु के बाद उसका अल्पवस्यक पुत्र इम्माडि नरसिंह विजयनगर का शासक बना तथा नरसा नायक को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया। 1505 ई. में सत्ता अधिकार के प्रश्न पर नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने इम्माडि नरसिंह की हत्या कर दी तथा राजगद्दी पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

बलापहारशासकीय व्यक्ति द्वारा शक्ति का प्रयोग करके राज सिंहासन पर अधिकार कर लेना बलापहार कहा जाता था।

 

क्या आप जानते हैं?

1800 ई. में कलिंग मैकेंजी ने सर्वप्रथम हपी पर शोध कार्य आरंभ किया। उसने हंपी का प्रथम सर्वेक्षण मानचित्र तैयार किया। विरुपाक्ष, पम्पा देवी पुरातात्विक सामग्री, विदेशी यात्रियों के विवरण तज्ज स्थानीय साहित्य के अध्ययन से हंपी के महान साम्राज्य की खोज संभव हुई।

 

तुलुव वंश

संस्थापक – वीर नरसिंहा

शासनकाल 1505 ई. – 1570 ई.

वीर नरसिंहा ने सलुव वंश के स्थान पर 1505 ई. में तुलुव वंश की स्थापना की। विजय नगर के इतिहास में इसे द्वितीय बलापहार कहा जाता है। उसके इस अपराध के कारण विजयनगर की जनता में आक्रोश फैल गया तथा जनता ने उसे अपना राजा स्वीकार नहीं किया। 1509 ई. में उसका सौतेला भाई कृष्णदेवराय विजयनगर का शासक बना। कृष्ण देवराय को उसकी सैनिक, असैनिक उपलब्धियों के कारण तुलुव वंश का ही नहीं बल्कि विजयनगर साम्राज्य का सबसे महान शासक माना जाता है। उसने न केवल विजयनगर साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया अपितु एक संगठित एवं सुदृढ़ शासन की स्थापना भी की। सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से उसका राज्य विश्व प्रसिद्ध था।

कृष्णदेवराय: 1509 ई.-1529 ई.

कृष्णदेवराय विजयनगर साम्राज्य का सबसे महान शासक था। उसने अपनी योग्यता से विजयनगर को उन्नति के शिखर तक पहुंचा दिया। बाबर ने अपने अपनी आत्मकथा बाबरनामा में जिन भारतीय राज्यों का वर्णन किया है उनमें विजयनगर के शासक कृष्णदेवराय का भी विवरण है। इतिहासकार डॉ आर. सी. मजूमदार ने उसके बारे में लिखा है कि “वह विजयनगर राज्य का सबसे महान शासक था तथा उसकी गिनती भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध शासकों में की जाती है। वह बहादुर सिपाही, सफल सेनापति, कुशल प्रशासक तथा कला व साहित्य का संरक्षक था।“ उसके शासन काल में पुर्तगाली यात्री बारबोसा व डोमिंगो पायस ने यात्रा की तथा इन यात्रियों ने उसके शासन व्यवस्था की अत्यधिक प्रशंसा की है।

बहमनी साम्राज्यः 1346 ई. में हसन गंगू ने अलाउद्दीन हसन बहमन शाह नामक उपाधि धारण करके बहमनी साम्राज्य की स्थापना की। 1346 ई. से 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक यह साम्राज्य संगठित एवं शक्तिशाली था। बाद में यह बीजापुर, अहमद नगर, बीदर, बरार एवं गोलकुंडा नामक पांच राज्यों में विभाजित होकर बिखर गया।

 

कृष्णदेवराय की उपलब्धियां एवं योगदान

    1. सैन्य उपलब्धियां
    2. प्रशासनिक उपलब्धियां
    3. साहित्य को प्रोत्साहन
    4. वास्तुकला में योगदान
    5. धार्मिक सहिष्णुता
  1. सैन्य उपलब्धियां

पड़ोसी राज्यों की सेना के लगातार हो रहे हमलों को रोकना कृष्णदेवराय का प्रथम उद्देश्य था। बीजापुर के शासक युसफ आदिलशाह व कृष्ण देवराय के मध्य 1509 ई. में कोविलकोण्डा के समीप युद्ध हुआ, जिसमें बीजापुर का शासक मारा गया। कृष्णदेवराय ने रायचूर, गुलबर्गा व बीदर पर अधिकार कर लिया। पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क ने कृष्णदेवराय का सहयोग लेने के लिए अरबी-फारसी घोड़े मात्र विजयनगरको ही देने का प्रस्ताव रखा। पुर्तगालियों ने उससे भटकल में किला बनाने की अनुमति मांगी। कृष्णदेवराय ने इस प्रस्ताव को मान लिया व पुर्तगालियों से मित्रता स्थापित कर ली। कृष्णदेवराय ने उम्मात्तुर के विद्रोही सरदार गंगाराय को हरा कर मार डाला।

कृष्णदेवराय ने उड़ीसा की सेनाओं को हराकर तेलंगाना क्षेत्र को जीत लिया। उसकी विजयी सेनाएं कटक तक पहुंच गई। यहां के शासक प्रताप रुद्रदेव ने अधीनता स्वीकार करते हुए अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेवराय से कर दिया।

2. प्रशासनिक उपलब्धियां

कृष्णदेवराय ने विजयनगर राज्य को सुसंगठित किया। शांति व व्यवस्था स्थापित की। कृष्णदेवराय न्याय व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कानून निर्माण, सैन्य संचालन आदि सभी का प्रधान था परंतु वह निरंकुश व स्वेच्छाचारी शासक नहीं था। उसने अपने राज्य में कृषि एवं व्यापार की उन्नति के लिए पर्याप्त प्रयास किए। जंगल साफ कर अधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया तथा तालाब व नहरें खुदवाकर सिंचाई के साधनों में वृद्धि की। सैन्य व्यवस्था को भी सुसंगठित किया। उसने सेना में कठोर अनुशासन लागू किया।

3. साहित्य को प्रोत्साहन

कृष्णदेवराय कला व साहित्य का महान संरक्षक था। वह ‘आंध्र भोज’ के नाम से प्रसिद्ध था। उसके दरबार को अष्ट दिग्गज के रूप में प्रख्यात आठ तेलुगु कवि एवं विद्वान सुशोभित करते थे। इन तेलुगु कवियों में पेडूडन सर्वप्रमुख थे। वह संस्कृत और तेलुगु दोनों भाषाओं के महापंडित थे। कृष्णदेवराय स्वयं भी विद्वान थे। उसने तेलुगु में ‘आमुक्तमाल्यद’ तथा संस्कृत में ‘जांबावती कल्याणम्’ नामक ग्रंथों की रचना की।

4. वास्तु कला में योगदान

कृष्णदेवराय के समय में विजयनगर में वास्तु कला की द्रविड शैली उन्नति के चरम पर थी। उसने मण्डप, गोपुरम, विशाल भवन व मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने राजधानी को भी काफी भव्य रूप दिया जिसकी प्रशंसा विदेशी यात्री पायस इस प्रकार करता है “आकार में वह रोम के समान विशाल एवं विस्तृत है। इस नगर में असंख्य लोग निवास करते हैं। इसके बाजारों में सम्पूर्ण विश्व की ऐसी कोई वस्तु नहीं जो न बिकती हो।“ वास्तुकला के क्षेत्र में कृष्णदेवराय ने अपनी राजधानी में विट्ठलस्वामी मंदिर, हजारास्वामी मंदिर व चिदम्बरम मंदिर का निर्माण करवाया। उसने अपनी माता नागम्बा की याद में नया शहर नागलपुरा निर्मित करवाया। इसके अतिरिक्त उसने गोपुरम तथा अन्य भवनों का भी निर्माण करवाया। कृष्णदेवराय के अधीन न केवल विजयनगर साम्राज्य का विकास हुआ अपितु सुशासन, साहित्य, कला, धर्म आदि के क्षेत्रों में भी अनेक उपलब्धियों प्राप्त की। कृष्णदेवराय को दक्षिण भारत का महानतम शासक माना गया है। वास्तव में विजयनगर राज्य कृष्णदेवराय के शासनकाल में अपने गौरव तथा खुशहाली की चोटी पर पहुंच गया था।

5. धार्मिक सहिष्णुता

कृष्णदेवराय की धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी देते हुए उसके काल में आए विदेशी यात्री दुआर्ते बारबोसा अपने यात्रा वृतांत में लिखता है “राजा इतनी स्वतंत्रता देता है कि चाहे इसाई हो या यहूदी, हब्शी हो या विधर्मी, हर व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार आ-जा सकता है और अपने धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकता है। उसे इसके लिए किसी प्रकार की नाराज़गी नहीं झेलनी पड़ती है और न ही उसके बारे में यह जानकारी हासिल करने की कोशिश की जाती है।“

  • विजयनगर के विषय में पायस का वर्णन

इस शहर का परिमाप मैं यहां नहीं लिख रहा हूं क्योंकि यह एक स्थान से पूरी तरह नहीं देखा जा सकता। मैं एक पहाड़ पर चढ़ा जहां से मैं इसका एक बड़ा भाग देख पाया। वहां से मैंने देखा तो यह मुझे राम जितना विशाल प्रतीत हुआ। यह देखने में अत्यंत सुंदर है। इसमें पेड़ों के कई उपवन है। आवासों के बगीचों में पानी की कई नालियां आती है. इसमें अनेक सुंदर तालाब हैं।

  • द्रविड़ शैलीदक्षिण भारत की हिंदू स्थापत्य कला की एक महत्वपूर्ण शैली है। दक्षिण में इसका उद्भव व विकास होने के कारण इसे द्रविड़ शैली कहा गया। इसमें भवन को तीन भागों में बांटा जाता है गोपुरम, गर्भगृह, शिखर। विशाल प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता है। मंदिर के आधार भाग जोकि वर्गाकार होता है और यहीं पर मुख्य मूर्ति होती है, गर्भगृह कहलाता है। गर्भगृह के ऊपर विशाल पिरामिडनुमा शिखर होता है। द्रविड़ शैली के भवन काफी विशाल व ऊंचे होते हैं। इनमें अनेक कक्ष, जलकुंड व अन्य छोटे मंदिर होते हैं।

विजयनगर का पतन व अरविदु वंश

संस्थापक – तिरुमल्ल

शामनकाल 1570 ई.-1650 ई.

कृष्णदेवराय की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ। उसके बाद अच्युतराय तथा सदाशिव राय गद्दी पर आसीन हुए। इस काल में राज्य की वास्तविक शक्ति कृष्णदेवराय के दामाद रामराय के हाथ में रही। रामराय एक योग्य शासन प्रबंधक था परंतु सफल कूटनीतिज्ञ नहीं था।

उसने बहमनी राज्य के खंडों (बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर) को एक-दूसरे के विरुद्ध सहायता देने की नीति अपनाई परंतु अंत में इन राज्यों ने विजयनगर के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाकर 23 जनवरी 1565 को तलीकोट के युद्ध में उसे पराजित कर दिया। युद्ध के बाद लगभग 100 वर्षों तक विजयनगर पर अरविदु वंश का शासन रहा परन्तु विजय नगर दक्षिण भारत की राजनीति में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे पाया तथा यह महान साम्राज्य धीरे-धीरे अपने पतन की ओर अग्रसर होता गया।

तलीकोट का युद्ध : यह युद्ध 1565 ई. में विजयनगर की सेनाओं व बहमनी शासकों बीजापुर,अहमदनगर, गोलकुंडा की संयुक्त सेनाओं के मध्य लड़ा गया। विजयनगर की सेना का नेतृत्व प्रधानमंत्री रामराय कर रहा था। इस यद्ध में विजयनगर की सेना को इन राज्यों की संयुक्त सेनाओं ने हरा दिया। इसे राक्षसी-तागड़ी के युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। विजयी सेनाओं ने विजयनगर शहर पर आक्रमण किया तथा नगर में आग लगा दी। इस प्रकार तलीकोट का युद्ध विजयनगर साम्राज्य के लिए पतन का कारण बना।

 

विजयनगर आने वाले प्रमुख विदेशी यात्री

शासक यात्री देश
देवराय प्रथम निकोलो द कोण्टी इटली
देवराय द्वितीय अब्दुर्रज्जाक ईरानी
कृष्णदेवराय डोमिंगो पायस, बारबोसा पुर्तगाल

विजयनगर का प्रशासन

विजयनगर के शासकों ने एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था स्थापित की। उनकी शासन प्रणाली हिंदू-परंपरा आधारित थी। विजयनगर के शासकों द्वारा रायों (सामंतों) को लगान मुक्त जमीन देने से इसका स्व सामंतवादी बन गया था।

    1. केंद्रीय प्रशासन
    2. राजस्व प्रशासन
    3. न्याय प्रशासन
    4. सैन्य प्रशासन
    5. आर्थिक विकास
    6. कृषि
    7. उद्योग
    8. व्यापार व वाणिज्य
  1. केंद्रीय प्रशासन
    1. राजा : साम्राज्य की समस्त कार्यकारी, न्यायकारी व विधायी शक्तियां शासक में निहित होती थी अर्थात् निरंकुश राजतंत्रीय व्यवस्था होने के बावजूद विजयनगर के शासक न तो निरंकुश थे और न ही स्वेच्छाचारी। सभी शासक प्रजा-हितैषी थे। जनहित के कार्य करना अपना कर्तव्य समझते थे।

राजा के बड़े पुत्र को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त किया जाता था। पुत्र न होने की दशा में राजपरिवार के किसी भी योग्य व्यक्ति को शासक अपना युवराज चुन लेता था।

    1. मंत्री परिषद् : राजा की सहायता के लिए एक मंत्रीपरिषद् होती थी जिसमें प्रधानमंत्री, अन्य मंत्री, विभागों के प्रधान आदि राज्य के बड़े प्रमुख एवं योग्य व्यक्ति नियुक्त होते थे। इनकी संख्या बीस के निकट थी। वे प्रमुख विषयों पर राजा को परामर्श देते थे परंतु इसे मानना या न मानना राजा की इच्छा पर निर्भर करता था। राजा की सहायता के लिए रायसेन (राजा के मौखिक आदेशों को लिपिबद्ध करने वाला), कर्णिकम (लेखाधिकारी) तथा मुद्राकर्त्ता आदि प्रमुख थे।

क्या आप जानते हैं?

सप्ताग विचारधारा: कौटिल्यद्वारा रचित पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ प्राचीन भारतीय इतिहास व राजनीति की महान रचना है। सप्तांग विचारधारा अर्थशास्त्र से ली गई है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है सात अंग। शासन को चलाने के लिए कौटिल्य ने सात महत्वपूर्ण अंग बताए हैं। यह अंग इस प्रकार हैं: स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, सेना, मित्र एवं कोष। प्राचीन व मध्यकालीन हिंदू शासकों ने अपना शासन चलाने के लिए सप्तांग विचारधारा का प्रयोग किया।

iii. प्रांतीय व स्थानीय प्रशासन : विजयनगर राज्य छह प्रांतों में बंटा हुआ था। प्रांतपति प्रांत का प्रधानथा। उनके अधिकार विस्तृत थे। साम्राज्य प्रांत, वलनाडु, नाडु, स्थल व ग्राम आदि इकाइयों में विभक्त थे। ग्राम के मुखिया को गोंडा कहा जाता था।

2. राजस्व प्रशासन

विजयनगर कृषि प्रधान राज्य था। राज्य की आय का मुख्य साधन भू-राजस्व था जो उपज का तिहाई या छठा भाग होता था। किसानों से चावल की उपज का एक-तिहाई भाग, रागी, चना आदि का एक चौथाई भाग व बाजरे एवं अन्य शुष्क भूमि से उपज का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था। राज्य को सामंतों से भी कर व उपहार आदि प्राप्त होते थे। बंदरगाहों से कर तथा वाणिज्य से भी अधिभार वसूल किया जाता था। इसके अतिरिक्त बाजार कर, गृहकर, सिंचाई कर, चरागाह कर आदि भी राज्य की आय के मुख्यसाधन थे। न्यायालय द्वारा लगाए गए जुर्माने से भी राज्य को आय होती थी। कृष्णदेवराय की पुस्तक ‘आमुक्तमाल्यद’ के अनुसार राज्य की आय चार भागों पर खर्च की जाती थी- दान, राजा का व्यक्तिगत खर्च, घोड़ों की देख-रेख एवं सैन्य व राज्य की सुरक्षा।

आमुक्तमाल्यद : यह कृष्ण देवराय द्वारा रचित प्रसिद्ध तेलुगू रचना है। आमुक्तमाल्यद का शाब्दिक अर्थ होता है. मुद्रा या मणियों की माला। इस रचना को तेलुगु साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस पुस्तक में विजयनगर साम्राज्य के बारे में हमें विस्तार से जानकारी प्राप्त होती है।

3. न्याय प्रशासन

विजयनगर के राजा निष्पक्ष न्याय में विश्वास रखते थे। साम्राज्य के विभिन्न भागों में नियमित न्यायालय थे। ग्रामों में जाति पंचायतें व श्रेणी संगठन भी न्याय का कार्य करते थे। इन सबके ऊपर राजा का न्यायालय था, जिसे सभा कहा जाता था। धर्म शास्त्रों में बताए गए कानूनों का पालन किया जाता था। दंड विधान कठोर था। मृत्युदंड, अंग-विच्छेद और संपत्ति को जब्त कर लिया जाना मुख्य दंड थे।

4. सैन्य प्रशासन

विजयनगर साम्राज्य की सेना सुसंगठित व स्थायी थी। सेना का प्रमुख राजा होता था। पैदल, घुड़सवार, हाथी व तोपखाना सेना के प्रमुख अंग थे। विदेशों से उत्तम नस्ल के घोड़े आयात किए जाते थे। कृष्णदेवराय के समय हारमुज से 13000 अरबी नस्ल के घोड़े खरीदे गये थे। सेना का प्रमुख अधिकारी ‘नायक’ या ‘पालिगर’ कहलाता था। स्थाई सेना के अतिरिक्त जरूरत पड़ने पर राजा को अपने अधीन छोटे राजाओं व सामंतों से भी सेना प्राप्त होती थी। राजकीय सेना को नकद वेतन दिया जाता था परंतु पालिगर जैसे बड़े अधिकारियों को वेतन के बदले भू-क्षेत्र अनुदान दिया जाता था।

5. आर्थिक विकास

विजयनगर एक समृद्धशाली राज्य था। विभिन्न विदेशी यात्रियों ने उसकी धन-संपत्ति की प्रशंसा की थी। उनके वृत्तांतों से पता चलता है कि विजयनगर उस काल के विश्व में ज्ञात सबसे धनी राज्यों में से एक था। इटली निवासी यात्री निकोलो द कोण्टी, पुर्तगाल निवासी यात्री डोमिंगो पायस और ईरानी यात्री अब्दुर्रज्जाक ने उसकी समृद्धि की अत्यधिक प्रशंसा की। कोंटी ने लिखा है कि “यहां का राजा भारत के दूसरे सभी राजाओं से अधिक शक्तिशाली है।“ अब्दुर्रज्जाक ने लिखा था “विजयनगर के समान न तो कोई शहर देखा है और न ही उसके समान विश्व में किसी नगर के बारे में सुना है।“

इसी प्रकार पुर्तगाली यात्री डोमिंगो पायस ने लिखा “ यह विश्व का सबसे सुंदर शहर है जहां पर गेहूं, चावल, जौ. दालों और अन्य सभी वस्तुओं की भरमार है।“ वह पुनः लिखता है – “यहां के राजा के पास असीमित संपत्ति. सैनिक और हाथी हैं क्योंकि यहां ये प्रचुर मात्र में उपलब्ध हैं। इस शहर में तुम्हें सभी देशों के निवासी मिलेंगे क्योंकि यहां के निवासी सभी देशों से कीमती पत्थरों, मुख्यतः हीरों का व्यापार करते हैं।“ वारबोसा ने नगर की प्रशंसा करते हुए लिखा था” नगर बहुत विस्तृत और सघन बसा हुआ तथा भारत के हीरों, पेगू के लाल, चीन और अलेक्जेंड्या की रेशम, सिंदूर, कपूर, कस्तूरी तथा मालाबार की काली मिर्च और चंदन के व्यापार का मुख्य केंद्र स्थान है।“

6. कृषि

विजयनगर कृषि प्रधान राज्य था। राज्य की कृषि व्यवस्था उत्तम थी। राजा कृषि की उन्नति में पर्याप्त योगदान देते थे। सम्पूर्ण भूमि को चार भागों में बांटा गया था। सिंचित, शुष्क, उद्यान और वन। यहां पर गेहूं, चावल, जौ, रागी, चना, बाजरा, दालों और अन्य सभी फसलों की खेती होती थी। विजयनगर के शासकों ने कई नहरों व तालाबों का निर्माण कर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करवाई जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई।

पुर्तगाली यात्री नूनीज ने सजीव चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि विजयनगर शहर में ही ‘कमलपुरम’ नामक जलाशय था। शासकों ने कृषि क्षेत्रों की किलेबंदी की। विशेषतौर पर विजयनगर शहर में सात परकोटे थे जिनमें पहले परकोटे के अंदर विशाल कृषि क्षेत्र व जलाशय थे। एक निश्चित मात्रा में कृषि पर कर भी लिया जाता था। यह कुल उपज का 1/6 से 1/3 भाग निर्धारित था।

7. उद्योग

विजयनगर साम्राज्य में कपड़ा उद्योग, खनन उद्योग, धातु उद्योग व इत्र उद्योग का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है जो विजयनगर की समृद्धि के कारण थे।

8. व्यापार

विजयनगर साम्राज्य में अंतक्षेत्रीय व्यापार, तटीय तथा समुद्री व्यापार उन्नति पर था। आंतरिक व्यापार के अतिरिक्त विजय नगर का व्यापार मलाया, बर्मा, चीन, अरब, ईरान, अफ्रीका, अबीसीनिया और पुर्तगाल आदि देशों के साथ होता था। काली मिर्च, कपड़ा, चावल, शोरा, चीनी, मसाले, इत्र आदि विदेशों को भेजे जाते थे तथा घोड़े, मोती, तांबा, कोयला, पारा, रेशम आदि विदेशों से मंगवाए जाते थे। व्यापार जल व स्थल दोनों मागों से होता था। भारत में जलयानों का भी निर्माण होता था।

9. वाणिज्य

अब्दुर्रज्जाक के कथनानुसार “विजयनगर साम्राज्य में तीन सौ बंदरगाह थी।“ पश्चिमी तट पर मालाबार क्षेत्र प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र था, जहां कन्नूर का बंदरगाह था। इस प्रकार विजयनगर राज्य की समृद्धि से वहां की प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी।

कला और साहित्य

कला और साहित्य की दृष्टि से भी विजयनगर राज्य प्रगतिशील रहा। वहां के शासकों ने कला और साहित्य को पूर्ण संरक्षण दिया। अनेक नगरों की स्थापना की, उनमें भव्य भवनों, मंदिरों आदि का निर्माण किया। साहित्यिक क्षेत्र में संस्कृत, तेलुगु, तमिल और कन्नड़ भाषा के साहित्य में रुचि ली।

    1. भवन निर्माण कला
    2. साहित्य
  1. भवन निर्माण कला

विजयनगर साम्राज्य में द्रविड शैली व मदुरै शैली अपनी चरम पर थी। विजयनगर की खुदाई में लगभग तीस भवनों के अवशेष मिले हैं जो आकार में काफी बड़े हैं। इनको महलों का नाम दिया गया है। शहर में सबसे ऊंचा और आकर्षक स्थान ‘महानवमी डिब्बा’ था। यह ग्यारह हजार वर्ग फुट में फैला चालीस फुट की ऊंचाई वाला मंच था। शाही क्षेत्र में एक अन्य सुंदर भवन ‘कमलमहल’ है। इसकी मेहराब पर बहुत सुंदर डिज़ाइन बनाए गए हैं। इस भवन को कमल महल का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि इन मेहराबों को दूर से देखने पर कमल जैसी आकृति बनती हैं। विजय नगर में एक क्षेत्र मंदिरों वाला है जो बहुत प्रसिद्ध है। यहां अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। इनके निर्माण में भले ही द्रविड़ शैली का प्रयोग हुआ पर इनकी अपनी भी एक विशेष शैली है। इनमें स्तंभों का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है तथा खंभों पर घोड़ों की आकृतियां दर्शाई गई हैं। मंदिरों में मंडप या खुले दालान हैं, जिस पर देवता की मूर्ति बनाई गई है।

विरुपाक्ष मंदिर, विट्ठलस्वामी मंदिर तथा हजारास्वामी मंदिर कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। चिम्बरम में ताड़पत्री तथा पार्वती मंदिर भी सुंदर हैं। कांचीपुरम के वृद्धराज तथा एकम्बरनाथ मंदिर, कल्याण मण्डप भी उल्लेखनीय हैं। इन मंदिरों के गोपुरम सबसे अधिक प्रभावशाली थे। भवन निर्माण कला के साथ मूर्ति-निर्माण कला, चित्रकला, संगीत व नृत्य कला में भी विशेष प्रगति हुई।

महानवमी डिब्बा : यह लगभग 11000 वर्ग फीट के आधारपर 40 फीट की ऊंचाई तक बनी पत्थरों की मंचनुमा आकृति है। इसके उपयोग को लेकर विद्वानों में आज भी मतभेद है, फिर भी अधिकतर विद्वानों का मानना है कि विशेष अवसर पर धार्मिक अनुष्ठानों के समय पर यहां सम्राट व जनता इकट्ठा होती थी।

2. साहित्य

विजयनगर के शासकों ने अनेक विद्वानों और साहित्यकारों को सरंक्षण दिया। विजयनगर के कई शासक स्वयं भी उच्च कोटि के विद्वान व साहित्यकार थे। उनके समय में संस्कृत, तेलुगु, तमिल और कन्नड़ भाषाओं के साहित्य का विकास हुआ।

      1. बुक्का राय के मंत्री माधवाचार्य ने न्यायशास्त्र पर एक महान ग्रंथ लिखा।
      2. सायणाचार्य ने वेदों पर टीकाएं लिखीं।
      3. बुक्का प्रथम ने तेलुगु साहित्य को प्रोत्साहन दिया।
      4. देवराज द्वितीय ने कवियों को संरक्षण दिया।
      5. राजा कृष्णदेवराय स्वयं उच्च कोटि के साहित्यकार थे। उनके काल में साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत उन्नति हुई। उन्होंने ‘आमुक्तमाल्यद’ नामक तेलुगु में महान ग्रंथ की रचना की।

उनके दरबार में तेलुगु के आठ महान कवि थे, जिन्हें अष्टदिग्गज कहा जाता था। रानी गंगा देवी ने ‘मदुरा विजय’ नामक ग्रंथ की रचना की थी।

क्या आप जानते हैं?

 विजयनगर की राजभाषा तेलुगु व लिपि नन्दिनागढ़ी थी।

इस प्रकार विजयनगर राज्य विस्तार, शक्ति, शासन संम्पन्नता, साहित्य और ललित कला आदि की प्रगति कीदृष्टि से भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसका महत्व इस दृष्टि से और भी अधिक हो जाता है कि उसने दक्षिण भारत में हिंदू धर्म, सभ्यता और समाज को एक लंबे समय तक सुरक्षित रख कर पल्लवित होने में सफलता दिलाई। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के शब्दों में “विजयनगर साम्राज्य ने दक्षिण में मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध हिंदू धर्म तथा संस्कृति की रक्षा करके एक महान ऐतिहासिक दृश्य को पूर्ण किया।

 

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