ncert class 7 history chapter 2

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CHAPTER – 2

दक्षिण के राज्य : चालुक्य, पल्लव एवं चोल

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चालुक्य

विंध्याचल पर्वत से लेकर कन्याकुमारी तक का विशाल प्रदेश दक्षिण प्रदेश या दक्षिणापथ कहा जाता है। सातवीं से तेहरवीं शताब्दी तक यहां अनेक राजवंश- चालुक्य, पल्लव, राष्ट्रकूट, चोल, पांड्य आदि थे। दक्षिण के इन राज्यों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के उदय होने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस अध्याय में हम चालुक्य, पल्लव एवं चोल शासकों का वर्णन करेंगे। चालुक्य वंश के अभिलेखों के आधार पर इस वंश की तीन शाखाएं मानी जाती हैं। इन्हें सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी बताया गया है। ये तीन शाखाएं बादामी या वातापी के चालुक्य, पूर्वी या वेंगी के चालुक्य और कल्याणी के चालुक्य के नाम से थी।

चालुक्य वंश की मूल शाखा बादामी अथवा वातापी के चालुक्यों की थी। बादामी के चालुक्यों को प्रारंभिक पश्चिमी चालुक्य के नाम से भी पुकारा जाता है। उनकी एक शाखा वेंगी अथवा पिष्ठपुर के पूर्वी चालुक्य थे, जिन्होंने सातवीं सदी के प्रारंभ में अपने स्वतंत्र राज्य को स्थापित किया। इनकी एक अन्य शाखा कल्याणी के चालुक्य थे, जिन्हें बाद में पश्चिमी चालुक्य भी पुकारा गया और जिन्होंने दसवीं सदी के उत्तरार्ध में राष्ट्रकूट शासकों से अपने वंश के राज्य को पुनः छीन लिया और एक बार फिर चालुक्यों को कीर्ति को स्थापित किया। संभवतः ये चालुक्य शुरुआत में अयोध्या में रहते थे और बाद में कुछ कारणों से दक्षिण में चले गये।

बादामी के चालुक्य (वातापी के चालुक्य)

बादामी के चालुक्यों ने छठी सदी के मध्य काल से लेकर आठवीं सदी के मध्य काल तक के प्रायः 200 वर्षों के समय में दक्षिणापथ में एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया। डॉ. डी. सी. सरकार ने उनको ‘स्थानीय कन्नड़ परिवार’ का माना है जिनको बाद में क्षत्रियों में स्थान प्रदान किया गया। उन्होंने अपने वंश के इस नाम को चल्क, चलिक अथवा चलुक नाम के किसी प्राचीन व्यक्ति से प्राप्त किया और चालुक्य कहलाने लगे।

इस वंश का सबसे पहला शासक जयसिंह था। उसके पश्चात् उसका पुत्र रणराग सिंहासन पर बैठा। रणराग का पुत्र पुलकेशिन प्रथम (535-566 ई.) हुआ जिसने वातापी के किले का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाया। उसका उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा प्रथम था जिसने कदम्ब, कोंकण, नल आदि राजवंशों के राजाओं को परास्त करके अपने राज्य का विस्तार किया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके भाई मंगलेश ने गद्दी के उत्तराधिकारी पुलकेशिन द्वितीय का संरक्षक बनकर शासन किया। उसके पश्चात् पुलकेशिन द्वितीय शासक बना।

क्या आप जानते हैं?

एहोल कर्नाटक के बीजापुर बादामी के निकट, बहुत प्राचीन स्थान है। यहां से पुलकेशिन द्वितीय का 634 ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। इसका रचयिता जैन कवि रविकीर्ति था। इसभिलेख में पुलकेशिन द्वितीय की विजयों का वर्णन है।

 

पुलकेशिन द्वितीय (610-642 ई.) पुलकेशिन द्वितीय ने अपने चाचा मंगलेश से युद्ध करके सिंहासन प्राप्त किया क्योंकि मंगलेश उसके वयस्क हो जाने के पश्चात् भी उसे सिंहासन देने के लिए तैयार नहीं हुआ था। इस कारण पुलकेशिन के शासन का प्रारंभ संघर्ष और कठिनाइयों से आरंभ हुआ परंतु उसने अपनी योग्यता से चालुक्यों को श्रेष्ठता प्रदान की।

पुलकेशिन द्वितीय ने दक्षिण में कदंबों, कोंकण के मौयों एवं उत्तर के गुर्जरों को परास्त किया। उसने उत्तर भारत के महान सम्राट हर्षवर्धन को हराया। पूर्व में कलिंगों को परास्त किया और पिष्ठपुर को जीतकर अपने भाई विष्णुवर्धन को राज्यपाल बनाया। 

बेंगी के चालुक्य (पूर्वी चालुक्य)

पुलकेशिन द्वितीय ने अपने भाई विष्णुवर्धन को पिष्ठपुर का राज्यपाल बनाया था परंतु उसने बहुत शीघ्र ही अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। विष्णुवर्धन ने मकरध्वज, विषमसिद्धि नामक उपाधियां धारण की। उसके बाद कई शासक जैसेः जयसिंह प्रथम, इन्द्र वर्मन आदि हुए। पूर्वी चालुक्यों की पहली राजधानी पिष्ठपुर थी। उसके बाद वेंगी बनी और अंत में राजमहेंद्री बनी।

विष्णुवर्धन प्रथम के बाद (633-848 ई.) अनेक राजाओं ने वेंगी वंश को संभाला। विजयादित्य द्वितीय और विजयादित्य तृतीय वेंगी वंश के सबसे अधिक शक्तिशाली शासक हुए। जिन्होंने पल्लव, पाण्डय, पश्चिमी गंग, दक्षिण कौशल, कलिंग, कलचुरी और राष्ट्रकूट शासकों को परास्त किया।

विजयादित्य तृतीय के पश्चात् चालुक्य भीम (892-921 ई.) शासक बना। उसका संपूर्ण शासनकाल राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय से संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ। वह कई बार परास्त भी हुआ परंतु इस संघर्ष ने चालुक्यों की शक्ति को दुर्बल कर दिया। राजवंश के विभिन्न व्यक्तियों ने बाहरी शक्तियों की सहायता लेकर सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयत्न किया। 1063 ई. तक वेंगी के अनेक शासकों ने शासन किया। लेकिन चालुक्यों की शक्ति निरन्तर कमजोर होती गई। अन्त में चोल शासक कुलोतुंग ने वेंगी के शासक विजयादित्य सप्तम को पराजित कर इस वंश के साम्राज्य को चोल साम्राज्य में मिला लिया।

कल्याणी के चालुक्य (पश्चिम चालुक्य)

कल्याणी के चालुक्य शुरुआत में राष्ट्रकूट-शासकों के अधीन थे। अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क के समय में चालुक्य तैल द्वितीय ने विद्रोह किया और कर्क को परास्त करके राष्ट्रकूटों के राज्य पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार तैल द्वितीय ने कल्याणी के चालुक्यों के साम्राज्य का निर्माण राष्ट्रकूट साम्राज्य के अवशेषों पर किया। अपने साम्राज्य का विस्तार इन्होंने कल्याणी से शुरू किया।

क्या आप जानते हैं?

तैल द्वितीय ने अपनी राजधानी मान्यखेत बनाई जो पहले राष्ट्रकूट वंश की राजधानी थी।

 

तैल द्वितीय (993-997 ई.) एक महान योद्धा हुआ। उसने चेदी. उड़ीसा, कुंतल, गुजरात के चालुक्य, मालवा के शासक परमार मुंज और चोल शासक उत्तम को परास्त किया। उसने लाट और पांचाल प्रदेशों को भी अपने अधीन किया। इस प्रकार विभिन्न युद्धों में भाग लेकर उसने चालुक्यों के एक बड़े साम्राज्य का निर्माण किया व स्वयं को बादामी के महान चालुक्य शासकों का वंशज बताया था। उसने ‘महाराजाधिराज’ ‘परमेश्वर’ एवं ‘चक्रवर्ती’ नामक उपाधियां धारण की।

तैल के उत्तराधिकारी सत्याश्रय (997-1008 ई.), विक्रमादित्य पंचम (1008-1014 ई.) अय्यन द्वितीय (1014-1015 ई.) और जयसिंह द्वितीय (1015-1043 ई.) इस वंश के अन्य शासक रहे।

इनके पश्चात् सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ई.) शासक बना। उसने कोंकण को जीता तथा मालवा, गुजरात, दक्षिण कौशल तथा केरल पर आक्रमण किए। कलचुरी शासक राजाधिराज ने सोमेश्वर की राजधानी कल्याणी को लूटने में सफलता पाई परंतु वह संघर्ष करता रहा और अंत में एक युद्ध में राजाधिराज चोल मारा गया। उसके भाई राजेंद्र चोल द्वितीय ने सोमेश्वर के आक्रमणों के विरुद्ध चोल राज्य की रक्षा करने में सफलता पाई और अंत में (1063 ई.) में सोमेश्वर की पराजय हुई।

सोमेश्वर प्रथम के पश्चात् सोमेश्वर द्वितीय (1068-1076 ई.) और उसके पश्चात् विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.) शासक बना। विक्रमादित्य ने अनेक राजाओं से युद्ध करके अपने राज्य का विस्तार किया। उसका राज्य उत्तर में नर्मदा नदी और दक्षिण में कड़प्पा तथा मैसूर तक फैला हुआ था।

विक्रमादित्य के पश्चात् सोमेश्वर तृतीय (1126-1138 ई.) और जगदेव मल्ल (1138-1151 ई.) तैल शासक हुए। तैल के समय में चालुक्य राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इस वंश का अन्तिम शासक सोमेश्वर चतुर्थ था। अन्त में 1190 ई. में यादव एवं होयसल शासकों ने इस साम्राज्य का अन्त कर दिया।

चालुक्य शासकों की उपलब्धिया

  1. विशाल साम्राज्य की स्थापना : चालुक्य वंश केशासकों ने दक्षिणापथ में एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। इस वंश के शासकों में अनेक महान योद्धा हुए और उन्होंने उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के अनेक शासकों को परास्त करने में सफलता पाई। पुलकेशिन द्वितीय और कुछ अन्य शासकों ने अश्वमेध यज्ञ भी किये। चालुक्य-शासकों का राज्य आर्थिक दृष्टि से संपन्न था और उसके अंतर्गत कई अच्छे बंदरगाह थे जिनसे विदेशी व्यापार को बढ़ावा मिला
  2. धार्मिक सहनशीलता : धार्मिक दृष्टि से चालुक्य-शासक हिंदू धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने प्राचीन वैदिकधर्म के अनुसार अनेक यज्ञ किए और उनके समय में कई धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। उन्होंने हिंदू धर्म को संरक्षण देकर विष्णु तथा शिव के मंदिरों का निर्माण कराया। लेकिन अन्य धर्मों के प्रति उनका व्यवहार सहनशीलता का था। चालुक्य शासकों ने जैन धर्म व बौद्ध धर्म को भी सहायता प्रदान की। इसके अतिरिक्त मुंबई के थाना जिले में पारसियों को बसने की आज्ञा दी। चालुक्य राज्य में 100 से अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें 5000 भिक्षु निवास करते थे।
  3. कला एवं स्थापत्य कला का विकास : सबसे अधिक वास्तुकला की प्रगति इस समय में हुई विशेषकर चित्रकला व ललित कला। अजंता के भित्ति चित्रों में से कुछ का निर्माण चालुक्य शासकों के समय में हुआ। चालुक्यों ने अपनी पृथक वेसर-शैली का विकास किया।

वास्तु कला के क्षेत्र में चालुक्यों के समय की एक मुख्य विशेषता पहाड़ों और चट्टानों को काटकर बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण था। उनके समय में विभिन्न हिंदू गुफा मंदिरों और चैत्य हालों का निर्माण किया गया। सम्राट मंगलेश ने वातापी में विष्णु के गुफा मंदिर का निर्माण कराया। बादामी, ऐलोरा, ऐलीफंटा, औरंगाबाद, अंजता आदि में पर्वतों को काटकर सुन्दर मन्दिरों का निर्माण किया गया।

      4. शिक्षा व साहित्य क्षेत्र में प्रगति : चालुक्य शासक शिक्षा एवं साहित्य के महान प्रेमी थे। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर विद्यालय एवं महाविद्यालयों का                      निर्माण करवाया तथा साहित्यकारों एवं लेखकों को अपने दरबार में संरक्षण दिया। चालुक्यों ने संस्कृत भाषा को अत्यधिक महत्व दिया।

उस समय अवलंक ने ‘अष्टशती’, विज्ञानेश्वर ने ‘मिताक्षरा’ पुस्तक लिखी। कन्नड़ भाषा के ग्रंथ ‘कविराजमार्ग’ शांतिपुराण, गदायुद्ध आदि भी इस युग में लिखे गये है। विल्हण का ‘विक्रमांकदेवचरित’ व सोमदेव सूरी को ‘वाक्यामृत’ इस युग में लिखे गए प्रमुख ग्रन्थ हैं।

      5. आर्थिक जीवन : लोगों का आर्थिक जीवन खुशहाल था। मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। भू-राजस्व भूमि की उपजाऊ शक्ति पर आधारित था। उस समय                   गर्म मसालों एवं बहुमूल्य लकड़ी का व्यापार भी किया जाता था।

    6. प्रशासनिक व्यवस्था चालुक्यों की प्रशासनिक व्यवस्था उच्च कोटि की थी। शासक प्रशासनिक इकाई का केन्द्र बिन्दु था तथा उनके पास असीमित                     शक्तियां थी। वे अपनी शक्तियों का प्रयोग जनता की भलाई के लिए करते थे।

साम्राज्य को प्रशासनिक सुविधानुसार इस प्रकार बांटा गया था:

प्रशासनिक इकाई प्रशासनिक अधिकारी
साम्राज्य राजा
राष्ट्र (प्रान्त) राष्ट्रपति
देश (जिला) देशाधिपति
नगर (शहर) पतनस्वामी
ग्राम (गांव) गामुंड

पल्लव वंश

भारत के सुदूर दक्षिण में पल्लव राजवंश का उत्थान हुआ। सुदूर दक्षिण के इस भाग को तमिल-प्रदेश भी पुकारा गया है। सातवाहन वंश के पतन के बाद उनके राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग पर पल्लव वंश ने अपना अधिकार कर लिया और कांची को अपनी राजधानी बनाया।

पल्लव वंश के शासकों का ज्ञान हमें प्राकृत तथा संस्कृत ताम्रपत्रों व समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से होता है। पल्लव शासकों की उत्पत्ति का अनुमान तीसरी सदी से किया जाता है। शिवस्कंधवर्मा, विष्णुगोप आदि इनके आरंभिक शासक थे परंतु पल्लवों की महानता का काल छठी शताब्दी के अंतिम चरण में उनके शासक सिंहविष्णु के समय से आरंभ हुआ। इनके शासक इस प्रकार थे:

क्या आप जानते है?

 तमिल शब्द ‘तोंडेयर’ को संस्कृत में पल्लव कहा गया है। इसी से यह वंश पल्लव वंश कहलाया।

विभिन्न पल्लव शासक

  1. सिंहविष्णु (575-600 ई०):

सिंहविष्णु एक महान शासक था। उसने कावेरी से कृष्णा नदी तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

सिंहविष्णु ने साहित्य और कला को संरक्षण दिया। संस्कृत का महान कवि भारवि उसके दरबार में था और उस के समय में महाबलीपुरम नगर कला का केंद्र स्थान बन गया था। उसने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की। उसने चोलो को पराजित कर चोलमण्डलम पर अधिकार किया।

     2.महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.):

सिंहविष्णु के पश्चात् उसका पुत्र महेंद्रवर्मन शासक बना। सिंहविष्णु के पुत्र महेंद्र के समय में पल्लवों और चालुक्यों का संघर्ष आरंभ हुआ क्योंकि दोनों ही दक्षिण भारत में अपनी-अपनी शक्ति के विस्तार के लिए प्रयासरत थे।

पल्लवों ने कदम्बों के साथ मिलकर चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति के विस्तार को रोकने का प्रयत्न किया। इस कारण पुलकेशिन ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। इस आक्रमण से पल्लव राजधानी कांची की सुरक्षा तो हो गई परंतु पुलकेशिन ने उससे उसके उत्तरी प्रांत वेंगी को छीन लिया जहां उसने अपने भाई विष्णुवर्धन को राज्यपाल नियुक्त किया जिसने पूर्वी चालुक्यों के राज्य की स्थापना की।

महेंद्रवर्मन प्रथम

साहित्य एव ललित कला का प्रेमी।

– कवि और गायक।

-‘मत्तविलास प्रहसन’ नामक संस्कृत ग्रंथ लिखा।

– त्रिचनापल्ली, चिंगिलपुट और अर्काट में बहुत से मंदिरों की स्थापना की (जो पहाड़ी की चट्टानों को काटकर बनाए गए थे)।

-एक झील का निर्माण करवाया।

-आरंभ में जैन था परंतु बाद में शैव बन गया।

  1. नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई.):

महेंद्रवर्मन का पुत्र नरसिंह वर्मन एक महान शासक हुआ। उसके समय में भी पल्लवों का बादामी के चालुक्यों से संघर्ष हुआ। चालुक्य शासन पुलकेशिन द्वितीय ने उसके राज्य पर आक्रमण किया और 642 ई. में उसकी राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया। इन्हीं युद्धों में पुलकेशिन द्वितीय मारा गया और पल्लवों ने चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया।

नरसिंह वर्मन ने चालुक्यों की शक्ति को दुर्बल करके मैसूर तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया। उसके पश्चात् उसने चोल, चेर तथा पांडेय शासकों को परास्त करके दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य को और अधिक विस्तार दिया।

नरसिंह वर्मन ने महाबलीपुरम (मामल्लपुरम) में मंदिरों का निर्माण कराया जो अब मामल्लापुरम के रथ मंदिर कहलाते हैं। उसने त्रिचनापल्ली में भी मंदिर बनवाए। उसके समय में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची आया था और उसने वहां का बहुत अच्छा वर्णन किया है।

नरसिंह वर्मन के पुत्र महेंद्रवर्मन द्वितीय (668-70 ई.) ने केवल दो वर्ष तक शासन किया। उसके पश्चात् उसका पुत्र परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-95 ई.) सिंहासन पर बैठा।

  1. नरसिंह वर्मन द्वितीय (695-722 ई.):

परमेश्वर वर्मन के पुत्र नरसिंह वर्मन द्वितीय का समय शांति का रहा। उसके समय में राज्य में समृद्धि बढ़ी। उसने चीनी सम्राट के दरबार में अपना राजदूत भेजा।

नरसिंह वर्मन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र परमेश्वर वर्मन द्वितीय (721-739 ई.) सिंहासन पर बैठा। उसने अंतिम समय में चालुक्यों से पुनः संघर्ष शुरू हुआ। परेमश्वर वर्मन के उत्तराधिकारी ‘दन्तिवर्मन’, ‘नंदि वर्मन’ व ‘अपराजित’ हुए जो अयोग्य निकले। चोल शासक आदित्य प्रथम ने 893 ई. में इस वंश के अन्तिम शासक अपराजित पर आक्रमण करके उसे मार डाला। इससे पल्लव साम्राज्य का अन्त हो गया।

नरसिंह वर्मन द्वितीय

कांची के कैलाशनाथ मंदिर और महाबलीपुरम के तट पर अनेक मंदिर बनवाए।

-अनेक विद्वानों को आश्रय प्रदान किए।

-विद्वान दण्डी ने ‘दशकुमारचरितम्’ नामक काव्य ग्रंथ की रचना की।

 

पल्लव शासकों की उपलब्धियां

  1. शासन व्यवस्था : पल्लवों की शासन व्यवस्था बहुतकुछ गुप्त और मौर्य सम्राटों की शासन व्यवस्था के समान थी। उसमें सम्राट राज्य का प्रधान था। वह बड़ी-बड़ी उपाधियां धारण करता था और राज्य की संपूर्ण शक्तियां उसमें केंद्रित थी परंतु सम्राट की सहायता के लिए विभिन्न मंत्री और राज्य के अन्य बड़े पदाधिकारी होते थे। संपूर्ण राज्य को राष्ट्रों. विषयों (जिला), कोट्टम (तहसील) और गांवों में बांटा गया था। ‘भट्टारक’ इनकी महत्वपूर्ण उपाधि थी। उनकी शासन व्यवस्था में ग्रामीण शासन को काफी स्वतंत्रता मिली हुई थी।

कोट्टम- प्रशासन की एक इकाई जिसके अन्तर्गत गावों का एक समूह होता था।

2. शिक्षा एवं साहित्य : पल्लव शासकों केसमय में साहित्यिक प्रगति भी बहुत हुई। कांची के विश्वविद्यालय ने इस प्रगति में बहुत सहयोग दिया। पल्लव शासकों ने विद्वानों को आश्रय दिया। सम्राट सिंह विष्णु ने समकालीन विद्वान भारवि को अपने दरबार में आने हेतु आमंत्रित किया था तथा विद्वान दंडी को उसके राज्य में राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ था। पल्लव शासकों के समय में संस्कृत के अतिरिक्त तमिल साहित्य की भी प्रगति हुई। तमिल का ‘कुरल’ नामक ग्रन्थ इसी काल में लिखा गया था। पल्लवों द्वारा कांची के समीप एक मण्डप में महाभारत के नियमित पाठ का प्रबन्ध करवाया गया था।

3. धर्म : पल्लव शासक हिंदू धर्म को मानने वाले थे। उन्होंने विभिन्न यज्ञ किए और विष्णु, शिव, ब्रह्मा, लक्ष्मी आदि हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों को मंदिरों में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने संस्कृत साहित्य और हिंदू धर्म को संरक्षण प्रदान किया। कांची का विश्वविद्यालय दक्षिण भारतीय संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था और स्वयं कांची नगर हिंदुओं के सात तीर्थ नगरों में से एक प्रमुख नगर था। पल्लव शासक धार्मिक दृष्टि से उदार थे। जैन और बौद्ध धर्म के प्रति उनका व्यवहार सहिष्णु था। उनके समय में शैव और वैष्णव साहित्यकी प्रगति हुई। उन्होंने जैन और बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दिया।

4. कला एवं वास्तुकला: सुदूर दक्षिण में पाषाण वास्तुकला का आरंभ पल्लव शासकों ने किया था और उनके सरंक्षण में अनेक मंदिर पहाड़ों की चट्टानों को काटकर बनाए गए जिनमें विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित की गई। मामल्लपुरम के शिव मंदिर, पांच पाण्डवों का मंदिरऔर वराह मंदिर इस समय की कला के सर्वश्रेष्ठउदाहरण हैं। उनमें सुंदर मूर्तियां और चित्र बनवाए गए।

त्रिमूर्ति, गंगा-अवतरण की मूर्ति, दुर्गा-मूर्ति, वराह मूर्ति और पांच पाण्डवों की मूर्तियां बहुत सुंदर है। देवी-देवताओं और पशु-पक्षियों के चित्रों का यहां बहुत सजीवता से चित्रण किया गया है। अतः पल्लव काल की कला एवं वास्तु कला भारतीय कला के इतिहास में निसंदेह एक प्रकाशमान अध्याय है।

5. सामाजिक व आर्थिक स्थिति: पल्लव काल में वर्ण व्यवस्था थी। वर्ण व्यवस्था के आधार पर कार्य विभाजन था। सामंत व्यवस्था का प्रचलन था। कृषि भूमि पर अधिकतर सामंतों का अधिकार था। सभी वर्ग सामान्यतः कृषि व्यवस्था से जुड़े हुए थे। व्यापार भी उन्नत था। कपास, गुड़, बहुमूल्य लकड़ी, गर्ममसाले इत्यादि का व्यापार किया जाता था। कृषि की उन्नति के लिए पल्लव शासकों ने नहरों, झीलों एवं तालाबों का निर्माण करवाया। राज्य की आय के लिए विभिन्न तरह के 18 कर लगाये गए थे।

चोल वंश

चोल वंश सुदूर दक्षिण के प्राचीन राजवंशों में से एक था। संगम काल (100-250 ई.) में चोल शासक शक्तिशाली थे। 200 वर्षों से भी अधिक समय तक चोलों ने तुंगभद्रा नदी के दक्षिण के सभी भू प्रदेशों और अरब सागर के बहुत से द्वीपों पर अपनी सत्ता को स्थापित रखा और शासन तथा सभ्यता के विकास की दृष्टि से दक्षिण भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान बनाए रखा। चोलों को सूर्यवंशी माना जाता है। चोल शब्द की उत्पत्ति तमिल भाषा के ‘चूल’ से हुई जिसका अर्थ है’ भ्रमण करने वाला’ जो पहले उत्तर भारत में रहते थे कालांतर में दक्षिण में चले गए। इसका अर्थ श्रेष्ठ से भी निकाला जाता है। करिकाल शुरुआती शासकों में से एक महान शासक था। जिसने चोल साम्राज्य को उन्नति के शिखर पर पहुंचाया। उसने कावेरीपट्टनम् को राजधानी बनाया। उसके बाद कुछ वर्षों के लिए इनकी शक्ति कमजोर हो गई।

विभिन्न चोल शासक

  1. विजयालय (850-871 ई.):

नौवीं सदी में चोल शक्ति की पुनः स्थापना में प्रमुख योगदान विजयालय का था। उसने पल्लव और पाण्ड्यों के संघर्ष से लाभ उठाया और पाण्ड्यों से तंजौर को छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया। उसने कावेरी की निम्न घाटी और कोलसन घाटी पर विजय प्राप्त की।

  1. आदित्य प्रथम (871-907 ई.): विजयालय के पुत्र और उत्तराधिकारी आदित्य ने पल्लव शासक अपराजित को पाण्ड्‌यों के विरुद्ध सहायता दी। बाद में 893 ई. के लगभग उसने अपराजित को परास्त करके मार दिया और संपूर्ण तोंडमंडल पर अपना अधिकार करके चोल वंश के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उसने पश्चिमी गंगों को भी अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उसने अपनी राजधानी तंजौर में अनेक शिव मंदिरों का निर्माण कराया।
  1. परान्तक प्रथम (907-950 ई.) : परान्तक ने श्रीलंका और पाण्ड्य शासक राजसिंह की सम्मिलित सेनाओं को परास्त करके अपने राज्य का विस्तार किया। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने गंग शासक के साथ मिलकर चोल राज्य पर आक्रमण करके कमजोर कर दिया। 950 ई. के बाद से 985 ई. तक चोल वंश के शासक काफी कमजोर रहे।
  2. राजराजा प्रथम (985-1014 ई.): राजराजा प्रथम ने चोल वंश की खोई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उसने अनेक राजाओं को पराजित करके अपने साम्राज्य को सुरक्षित बनाया। वह एक महान विजेता होने के साथ-साथ कुशल प्रबन्धक एवं कला तथा साहित्य का संरक्षक भी था।
  3. राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई.): राजेन्द्र प्रथम अपने पिता की तरह एक महान शासक था। उसने अपने पिता के शासन काल में ही शासन सम्बन्धित कार्यों में निपुणता प्राप्त कर ली थी। उसने अपने पिता के साथ कई महत्वपूर्ण युद्धों में भाग लिया। राजेन्द्र प्रथम को चोल साम्राज्य का स्तंभ भी कहा जाता है। उसने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए पाण्ड्यों, चेरों, श्रीलंका, चालुक्यों एवंबंगाल आदि पर विजय प्राप्त की। उसने बंगाल व बिहार पर विजय प्राप्त करके ‘गगैंकोण्ड’ की उपाधि धारण की तथा ‘गगैंकोण्डचोलपुरम्’ नामक राजधानी की स्थापना की।

राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों को विभिन्न शासकों से लम्बा संघर्ष करना पड़ा। जिसके कारण उनकी शक्ति कमजोर होती चली गई। राजेन्द्र चोल के बाद राजाधिराज प्रथम, राजेन्द्र द्वितीय, वीर राजेन्द्र, कुलोतुंग प्रथम आदि शासक हुए। लेकिन इनकी शक्ति कमजोर होने के कारण चोल वंश का पतन आरम्भ हो गया। 1310 ई. में अलाऊद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने चोलों के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

 

चोल शासकों की उपलब्धियां

  1. शासन व्यवस्था :

चोल शासक कुशल शासक प्रबन्धक थे। केंद्र के शासन का प्रधान सम्राट होता था और वह सम्मानित उपाधियां ग्रहण करता था। तंजौर, गगैंकोण्डचोलपुरम्, मुडिकोण्डन और कांची समय-समय पर विभिन्न चोल सम्राटों की राजधानियां रही।

चोल शासक निरकुश होते हुए भी प्रजा की भलाई और सार्वजनिक हित के कार्य में लगे रहना अपना प्रमुख कर्त्तव्य मानते थे। चोल शासकों ने अपने समय में भी युवराज को चुनने और शासन में उसे सम्मिलित करने की परंपरा को आरंभ किया था। सम्राट का पद पैतृक होता था।

सम्राट की सहायता के लिए विभिन्न मंत्री तथा अन्य बड़े पदाधिकारी होते थे। राज्य के अधिकारियों को बड़ी-बड़ी उपाधियां और जागीरें दी जाती थीं। अधिकारी उच्च और निम्न दो प्रकार के होते थे। ऊपर की श्रेणी को ‘पेरूदेनम’ तथा नीचे की श्रेणी को ‘शिरूदनम’ कहा जाता था। ‘उडनकुट्टम’ नामक कर्मचारी राजा का निजी सहायक था। चोल शासकों ने एक व्यवस्थित असैनिक शासन संगठन की स्थापना की थी।

2. सैनिक व्यवस्था :

चोल सम्राट ने एक अच्छी विशाल सेना का गठन किया और श्रेष्ठ नौसेना तैयार की। हाथी, घुड़सवार और पैदल सैनिक, सेना के मुख्य अंग थे। अभिलेखों से चोल सेना में 70 रेजिमेंटों के होने का उल्लेख मिलता है। उनकी सेना में साठ हजार हाथी और एक लाख पचास हजार सैनिक थे। अरब से श्रेष्ठ घोड़े मंगवाए जाते थे और उन पर बहुत धन व्यय किया जाता था। सैनिकों की छावनियां होती थीं जहां उन्हें शिक्षा और अनुशासन का प्रशिक्षण दिया जाता था।

सम्राट के अंगरक्षक पृथक् होते थे, जिन्हें वेलाइक-कारा पुकारते थे। योग्य सैनिकों और सरदारों को ‘क्षत्रिय शिरोमणि’ की उपाधि देकर सम्मानित किया जाता था।

3. न्याय व्यवस्था :

चोलों ने एक संगठित न्याय व्यवस्था का गठन किया। अपराध होने पर अधिकतर जुर्माना लगाया जाता था। हत्या किए जाने पर 16 गायों का जुर्माना किया जाता था और मृत्यु दंड भी दिया जाता था। राजा सबसे बड़ा न्यायाधीश माना जाता था।

क्या आप जानते है?

वर्तमान पंचायत व्यवस्था चोल प्रशासन की देन है।

4. प्रशासनिक इकाइयां :

चोलों ने सम्पूर्ण साम्राज्य को 6 प्रांतों में विभाजित किया। प्रान्त को मण्डलम तथा इसके अध्यक्ष को वायसराय कहा जाता था। मण्डलम का विभाजन कोट्टम अथवा वलनाडु में होता था तथा कोट्टम को आगे नाडु में विभाजित किया गया था। नाडु की सभा को नाट्टार कहा जाता था। जिसमें सभी गांवों व नगरों के प्रतिनिधि होते थे।

5. स्थानीय स्वशासन :

चोल शासन की एक मुख्य विशेषता स्थानीय स्वशासन माना गया है। चोल शासन में गांव से लेकर मंडल तक के लिए स्वशासन की व्यवस्था थी। गांव की महासभा का शासन में बहुत महत्व था। इसके अतिरिक्त कुर्रम, नाडु और मंडल तक में प्रतिनिधि सभाएं होती थीं जिनसे शासन में सहयोग प्राप्त किया जाता था। गांव में दो प्रकार की संस्थाए कार्य करती थी उर तथा सभा। उर गांव के सामान्य लोगो की व सभा विशेष लोगों का संगठन था।

नोट –

मंडलम – प्रान्त ।

नाडु – जिला।

कुर्रम – कई ग्रामों का समूह।

6. आर्थिक स्थिति :

चोल शासन में प्रजा सुखी व संपन्न थी। चोल शासकों ने कृषि की वृद्धि के लिए सिंचाई की अच्छी व्यवस्था की थी जो राज्य की आय और प्रजा की समृद्धि का मुख्य आधार था। उनके समय में व्यापार और उद्योगों में भी प्रगति हुई थी। राजमागों की सुरक्षा का अच्छा प्रबंध था और एक शक्तिशाली नौसेना के कारण समुद्री मार्ग से विदेशी व्यापार में प्रगति हुई। उस समय विदेशों से भी व्यापार होता था। चोल साम्राज्य सामन्तीय अर्थव्यवस्था पर आधारित था।

7. धार्मिक स्थिति :

चोल शासक शैव अथवा वैष्णव संप्रदाय के समर्थक थे। चोलों के समय में दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव संप्रदाय का प्रसार हुआ। इस काल में मंदिरों का स्थान प्रमुख बन गया था। मंदिर धर्म, शिक्षा, कला और जन सेवा के केंद्र बन गए थे। इस कारण चोल शासकों ने अनेक मंदिरों का निर्माण किया।

8. साहित्य एवं कला :

चोल सम्राटों का शासनकाल तमिल साहित्य का ‘स्वर्ण काल’ था। साहित्य के क्षेत्र में मुख्यतः काव्य ग्रंथों की रचना हुई। जैन विद्वान तिरुतक्कदेवर ने ‘जीवकचिंतामणि’, तोलामोलि ने ‘सूलामणि’ और कंबन ने ‘रामावतारम’ नामक ग्रंथ लिखे।

9. ललित कलाएं :

चोल शासक महान निर्माता थे। उनके समय में अनेक नगर, झील, बांध एवं तालाब आदि बनाए गए। राजेंद्र प्रथम द्वारा अपनी राजधानी गंगईकोड चोलपुरम के निकट बनवाई गई झील बहुत विशाल थी। उससे अनेक नहरें निकाली गई थीं।

 

 

हमने ncert class 7 history chapter 2 दक्षिण के राज्य : चालुक्य, पल्लव एवं चोल के बारे में संपूर्ण जानकारी प्रदान  करने की कोशिश की है, उम्मीद करते हैं आपको अवश्य ही पसंद आयी होगी।

 

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